शनिवार, 30 जुलाई 2011

विवादों में प्रेमचन्द




                                                                 
     हमारे देश में गॉंधीजी की पूजा करके कितने ही लोगों का धन्धा चल रहा है । गॉंधी को गोली मारने वाले भी अपनी दुकानदारी चला रहे हैं । गॉंधी को गाली देने वाले भी अपनी अलग पहचान बना चुके हैं । गॉंधी के बगैर इस देश में कुछ नहीं हो सकता । गॉंधी सहूलियत का नाम है । इसमें परेशान होने की कोई बात भी नहीं है । हमारे देश में जहॉं बहु संख्यक मूर्तिपूजक रहते हैं वहीं मूर्ति पूजा के निन्दक और मूर्ति भंजक  भी कम नहीं हैं। इन सभी के विचारों एवं व्यवहारों का असर हमारे कार्यव्यवहार पर पडता है। इसलिये गॉंधी को लेकर हमारे देश में समय-समय पर जो रस्साकसी होती रहती है उसमें कुछ भी अस्वभाविक नहीं है। यह हमारी परम्परा के अनुरूप है 

     जो कुछ इस देश में गॉंधी के साथ हुआ है वही सब साहित्य की दुनियॉं में प्रेमचन्द के साथ होता रहा है । जिस किसी को भी स्वयं को चर्चा में लाना होता है वह प्रेमचन्द पर कीचड उछालने लगता है। उनके जीवनकाल में ही एक आलोचक ने उन्हें घ्रणा का प्रचारक कहकर लॉंछित किया था। प्रेमचन्द आमतौर पर अपनी आलोचनाओं पर ज्यादा मुखर नहीं होते थे किन्तु इस मिथ्याप्रचार का उत्तर उन्होंने ‘जीवन में घ्रणा का महत्व’ लेख लिखकर दिया था। प्रेमचन्द के उपन्यास 'रंगभूमि' को लेकर कुछ दलित नामधारी व्यक्तियों और संगठनों ने हंगामा करने का प्रयास किया। उनकी निगाह में प्रेमचन्द दलित विरोधी हैं। उनकी रचनायें दलितों को अपमानित करने वाली हैं।जबकि सत्य यह है कि प्रेमचन्द के लेखन का उददेश्य ही दलितों, शोषितों की आवाज बुलन्द करना है। मजदूर ,किसान, दलित एवं स्त्री वर्ग की समस्याओं को जिस ढंग से उन्होंने उठाया उनसे पूर्व ऐसा किसी भी लेखक ने नहीं किया है । 

        प्रेमचन्द की मशहूर कहानी 'कफन' दलित मजदूर घीसू और माधव की जीवनकथा है। पहली नजर में वह कामचोर, मुप्तखोर पृथ्वी पर भारस्वरूप विचरण करने वाले, बुद्धिहीन मनुष्य की कहानी है जिसकी संवेंदनायें अपनी प्रसूता स्त्री को मरते हुये देखकर भी जाग्रत नहीं होती हैं। दलित आलोचकों ने आरोप लगाया कि प्रेमचन्द ने इस कहानी में दलितों का मखौल उडाया है और उनके जीवन की गलत तस्वीर प्रस्तुत की है। कुछ आलोचकों ने दूर की कोडी भिडाते हुये यह कहा कि प्रेमचन्द को यह क्यों नहीं दिखायी दिया कि माधव की स्त्री के पेट में जो बच्चा है वह जमींदार का है।और यही घीसू और माधव की संवेदनाये मर जाने का कारण है। 

     अब पता नहीं दलित आलोचकों ने यह परिकल्पना कैसे कर ली कि बच्चा गॉंव के जमींदार का है। लेकिन इतना तो स्पष्ट ही है कि आलोचकों ने प्रेमचन्द के दृष्टिकोण को पूरी तरह से नजरन्दाज कर दिया है। वस्तुतः प्रेमचन्द इस कहानी के माध्यम से उस व्यवस्था पर चोट करते हैं जिसमें घीसू और माधव जैसे दरिद्र और साधनहीन मनुष्यों की सवेंदनायें मर जाती हैं। माधव का दायित्व बोध जाग्रत भी होता है तो घीसू अपने जीवन के अनुभवों का वास्ता देकर झिडक देता है।दरिद्रता की पराकाष्ठा यह है कि उनकी सारी सवेंदनायें अपना पेट भरने तक सिमट गयीं हैं । ऐसे मनुष्य जिनको जीवन में कभी भरपेट भोजन न मिला हो उन की संवेदनाओं का मर जाना आश्चर्यजनक नहीं है । 
    प्रेमचन्द की एक ओर कहानी है 'दूध का दाम'। पता नहीं क्यों आलोचकों  ने इस कहानी का संज्ञान नहीं लिया। एक भंगी का अनाथ पुत्र मंगल है|जिसकी परवरिश जमींदार के घर में जूठन और उतरन से होती है।वह आसरा भी इसलिये है कि उसकी मॉं ने जमींदार के पुत्र सुरेश  को अपना दूध पिलाया था। जमींदार पुत्र सुरेश तो बच गया किन्तु भंगिन मर गयी।उसका अनाथ पुत्र मंगल एक दिन जमींदार के पुत्र को अपने साथियों के साथ खेलता देख रहा था। सुरेश बोला 'मंगल चल हम सवार सवार खेलेंगें। तू घोडा बनेगा हम तेरे उपर सवारी करेंगें।' दौडायेंगें। मंगल ने शंका की - 'मैं घोडा ही बना रहूँगा कि सवारी भी करॅंूगा।' सुरेश ने कहा 'तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच? आखिर तू भंगी है या नहीं?'
  मंगल ने कहा कि 'मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ। पर जब तक मुझे सवारी करने को न कहोगें मैं घोडा न बनूगा।' सुरेश ने डॉंट कर कहा 'तुझे घोडा बनना पडेगा।' और अपने साथियों के साथ घेरकर जबरदस्ती घोडा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया। मंगल कुछ दूर तक चलता है फिर उसे गिरा देता है। गिरते ही सुरेश रोने लगता है। मंगल इस डर से कि अब तुझे मार पडेगी, भाग जाता है। दिन भर भूख से परेशान होकर शाम को वह जमींदार के द्वार पर ओट में छिपकर खडा हो जातां है। जब कहार जूठन फेंकने द्वार पर आता है मंगल सारा आत्मसम्मान छोडकर जूठन लपक लेता है। वह कहता है पेट की आग ऐसी ही होती है। 

     यह चित्रण इतना सजीव है कि उच्च वर्ग के प्रति घोर घ्रणा एवं दलित वर्ग के प्रति असीम सहानुभूमि उत्पन्न होती है। प्रेमचन्द ने अपने सशक्त लेखन से स्पष्ट सदेंश दिया है कि अब दलित वर्ग अपनी पीठ पर सवारी नहीं देगा। यदि उसकी स्थिति में तत्काल सुधार नहीं होता है, तो वह विद्रोह करेगा। ऐसे अनेक प्रसंग प्रेमचन्द के साहित्य में सर्वत्र विद्यमान है। प्रेमचन्द की अन्य कहानियॉं यथा सवासेर गेहू, धासवाली, पूस की रात, सुजान भगत,आदि दरिद्रता के दुष्चक्र एवं शोषक, उत्पीडक वर्ग की कुत्सित मनोवृत्तियों का चित्रण करती है। दलित वर्ग के प्रति सम्मान की भावना 'घासवाली 'कहानी में स्पष्ट मुखर हुई है जहॉं सुन्दर किन्तु दरिद्र घासवाली अपने चरित्रबल से धन एवं अधिकार के मद में चूर ठाकुर का मान मर्दन कर देती है । 

       प्रेमचन्द गॉंधीजी से बहुत प्रभावित थे । उन्होंनें एक बार अपनी पत्नि से कहा भी कि मैं गॉंधी का बना बनाया चेला हूँ। उन्होंनें गॉंधीजी की रीतिनीति का विश्लेषण अपनी कहानी 'जुलूस' में किया है ।स्वदेशी वस्तुओं के उपभोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का जो आन्दोलन उस समय चल रहा था, उस पर जनता में जो तर्क वितर्क चल रहा था कमोबेश वही तर्क उदारीकरण और वैश्वीकरण को लेकर हो रहे हैं ।अन्तर है तो यही कि स्वदेशी गॉंधीजी की जीवन शैली थी जबकि आज के स्वदेशी समर्थक दिखावा भर करते हैं। इसलिये प्रभावहीन हैं। प्रेमचन्द की जुलूस कहानी इसी अन्तर का चित्रण करती है । 

       गॉंधीजी से प्रभावित होने के बावजूद होने गॉंधीवादियों की कथनी और करनी पर तीखे व्यग्ंय किये हैं। उनकी कहानी 'तॉंगे वाले की बड'. में बातूनी मियॉं जुम्मन तॉंगेवाले ने नेताओं पर व्यंग्य करते हुये कहा है - ’रास्ते भर गॉंधीजी की जय, गॉंधीजी की जय बोलते रहे।स्टेशनपर पहुच कर  मैंने किराया मॉंगा तो मुश्किल से चवन्नी थमा दी। मैंने कहा भाई पूरा किराया तो दे दो। पर वहॉं गॉंधीजी की जय, गॉंधीजी की जय के अलावा कुछ नहीं। मैं चिल्लाता ही रहा आप  बोलते हुये भीड में गायब हो गये। अब भला इन्हीं हरकतों पर स्वराज मिलेगा। पहले अपने करम तो दुरूस्त कर लें। हुजूर जब वक्त आयेगा तो हमीं इक्के तॉगंे वाले ही स्वराज हॉंककर लायेगें। मोटर पर स्वराज हरगिज नहीं आयेगा। पहले पूरी मजूरी दो फिर स्वराज मॉंगों।' 

 यह कहानी बताती है कि जनसाधारण के लिये ऐसी आजादी का कोई अर्थ नहीं है जिसमें मजदूर को पूरी मजूरी न मिले।यही प्रेमचन्द की विचारधारा है। वह किसी अव्यवहारिक समानता के कायल नहीं हैं। 'पशु से मनुष्य' कहानी में प्रेमचन्द लिखते हैं - ’मेरा कहना है कि मानसिक एवं औद्योगिक कामों में इतना फर्क न्याय के विरूद्ध है। मैं कब कहता हू प्रत्येक मनुष्य मजूरी करने के लिये मजबूर किया जाये जो भावुक हों वे काव्य रचना करें। जो भावुक हों वे काव्य रचना करें, जो अन्याय से घ्रणा करते हों वे वकालत करें। धन की प्रधानता ने हमारे समाज को उलट पुलट दिया है।’ 
    प्रेमचन्द साम्यवाद में विश्वास करते थे। 'पशु से मनुष्य' कहानी मे वे लिखते हैं कि 'समाज का चक्र साम्य से प्रशस्त होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है। एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व और वाणिज्य प्राबल्य उसकी मध्यवर्ती दशायें हैं।' आज के दौर में जब साम्यवादियों के सारे हथियार चुक गये हैं, और उनमें जबरदस्त निराशा है, तब उन्हें प्रेमचन्द के विचारों से रौशनी मिल सकती है।उन्हें प्रेमचन्द के विचारों की गहराई से जॉंच पडताल करनी चाहिये। प्रेमचन्द ने यू ही नहीं लिख दिया कि अन्य सब मध्यवर्ती दशायें हैं। पूर्व और अन्तिम स्थिति साम्य ही है। वस्तुतः यह समाजिक विकास का ऐतिहासिक विश्लेषण है। एक अन्य आलेख में प्रेमचन्द लिखते हैं कि 'साम्यवाद का वही विरोध करता है जो दूसरों से अधिक सुख भोग करना चाहता है ।'

     प्रेमचन्द के साहित्य का महत्व इसलिये भी है कि जब कभी भारत का सामाजिक इतिहास लिखा जायेगा उसके लिये प्रॉंसगिक सामग्री इतिहास की पुस्तकों की अपेक्षा प्रेमचन्द साहित्य से प्राप्त होगी। 

     प्रेमचन्द महान लेखक थे। विश्व साहित्य में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है किन्तु वे स्वंय एक आम आदमी थे । तभी तो वे कहते हैं - ‘मैं तो नदी किनारे का नरकुल हूँ। हवा के थपेडों से मेरे अन्दर भी आवाज पैदा हो जाती है । बस इतनी सी बात है । मेरे पास अपना कुछ नहीं जो कुछ है उन हवाओं का है जो मेरे भीतर बजीं। मेरी कहानी तो बस उन हवाओं की कहानी है, उन्हें जाकर पकडों मुझे क्यों तंग करते हो।’ 

                                                                                                   - अमरनाथ ‘मधुर’
                                                                                                    मो0नं0..9457266975  








                           





5 टिप्‍पणियां:

  1. एक महान रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बेहतरीन प्रस्तुति.... सहेजने योग्य पोस्ट ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. लेखक को व्ही चित्रण करना होता है जो uske समय में समाज में घट रहा है .इस कारन उसे आलोचना का शिकार भी बनना पड़ता है .प्रेमचंद जी सभी आलोचनाओं से परे हैं .सार्थक आलेख .

    जवाब देंहटाएं
  3. विस्तृत विश्लेषण काफी अच्छा है । प्रेमचंद जी पर श्रंखलाबद्ध प्रकाश डालने हेतु धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूबसूरत पोस्ट, बहुत सुन्दर विवेचन

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी टिप्पणीकारों को सार्थक टिप्पणी के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ |आपका स्नेह ही मेरे लेखन का का सम्बल है |यहाँ आलेख 'कलमपुत्र ' साहित्यिक पत्रिका एवं दैनिक जनवाणी के ३१-७-११ के रविवारीय परिशिष्ट में भी प्रकाशित हुआ है |

    जवाब देंहटाएं