सोमवार, 13 अगस्त 2012

हम कोई चारण भाट नहीं है बिकी नहीं है कलम हमारी


                       हम कोई चारण भाट नहीं है बिकी नहीं है कलम हमारी 
            १९८४ में जब मैं कालिज में पढ़ता था एक स्थानीय हिन्दी भवन संस्था  की और से आयोजित काव्य प्रतियोगिता में अपने एक मित्र  के साथ कालिज का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला. कविता प्रतियोगिता में पुरस्कार तो न मुझे मिला न मेरे मित्र को लेकिन वहीं उपस्थित एक वीर रस के राष्ट्रिय स्तर के कवि ने जो दद्दा नाम से मशहूर थे हम दोनों को शहर के टाउन हाल में कुछ दिन बाद होने वाले एक राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मलेन  में काव्य पाठ का निमंत्रण  दे दिया. जिन छात्र  कवियों को कविता प्रतियोगिता में पुरस्कार दिया गया उनका आज कहीं अता पता नहीं है लेकिन मेरा मित्र काव्य के क्षेत्र में एक ख़ास पहचान रखता है और ये कहने की जरूरत नहीं कि मैंने भी कलम उठाकर नहीं रखी है. 
         इस क्षेत्र में यह अनुभव हुआ कि अब मंचों पर कविता नहीं चुटकले बाजी होती है और मंच पाने के लिए चापलूसी करनी होती है  और प्रायोजकों की पसंद नापसंद का भी ध्यान रखना होता है .ये नहीं हो सकता कि आप पूँजीपतियों या धर्म के ठेकेदारों के विरुद्ध अलख जगाओ और वे तुम्हें सहन  करें. जनता भले ही आपको पसंद करे लेकिन अगर फाईनेंसर को पसंद नहीं है तो आप किसी बड़े मंच पर कविता नहीं पढ़ सकते. एक ओज  के बड़े कवि हैं जो सारे हिन्दुस्तान में सत्ता को ललकारने के लिए जाने जाते हैं हमने उन्हें आदर्श माना लेकिन जब नजदीक गए तो हमने पाया कि उन्हें तो धन्ना सेठ पैसे ही इस बात के देते हैं कि वे बेचारे थैलीशाह जो  सरकार के खिलाफ  अपने मन की भड़ास नहीं निकाल पाते उसे कवि के मुंह से सुन कर इस बात की तसल्ली कर लें कि कोई तो है जो उनकी तरफ से सरकार को कोस रहा है. उस बड़े कवि को सेठों साहूकारों के खिलाफ बोलते कभी नहीं सुना.लेकिन इससे भी ज्यादा उनका तेवर का खोखलापन तब उजागर हुआ जब कथित राम भक्तों की सरकार आयी. अब वो सरकार के खिलाफ नहीं बोलते थे अब वो अमेरिका के खिलाफ बोलते थे वो भी भारत के एटम बम के समर्थन में बोलते थे अमेरिका जो अपना आर्थिक और राजनीतिक एजेंडे  भारत पर थोप रहा था उसके खिलाफ नहीं बोलते थे खैर वो जैसे चाहें बोलें  हमें क्या? हमने उनके प्रति अपनी श्रद्धा को पहले सिला दिया था और हमें ये समझ में आ गया कि कवि सम्मेलन का मंच हमारे लिए नहीं है. 
      हम दोनों कवि मित्र आज तक प्रतिबद्ध हैं  और कविता को बाजार की शर्तों पर नहीं बेचते हैं . मैं कविता के अलावा भी कुछ लिख लिखा लेता हूँ .मैंने सोचा कि पत्र पत्रिकाओं का जायजा लेना चाहिए. लिख रहें हैं तो छपना भी चाहिए नहीं तो लिखने का ओचित्य  ही क्या है ?लेकिन वहाँ और भी बुरा हाल था,.हर अखबार हर पत्रिका में कुछ जमे जमायें लोगों के गुट थे जो अपने लोगों को छपते रहते हैं.उनकी शर्तों पर छपना मंजूर हो तो छप सकते हो नहीं तो नहीं. अब छपने की इतनी भी चाह नहीं थी कि उसके लिए अतिरिक्त प्रयास करते . एक संकट सब जगह था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम सब भरते थे लेकिन पैमाना अपना ही रखते थे. ब्राहमण थे तो उन्हें ब्राहमणों के विरुद्ध कुछ लिखना पसंद न था दलित थे जो  चाहते थे कि बाबा साहेब कि जय बोली जाए और ब्राहमणों सवर्णों को ज्यादा से ज्यादा गरियाया जाए. राजपूत थे जो सती प्रथा के खिलाफ बोलने तक पर मार पीट को तैयार हो गए  यादव थे जो मुलायम के विरुद्ध कुछ नहीं सुनना  चाहते थे . विभिन्न दलों और विचार धाराओं में निष्ठां रखने वाले लोग थे जो चाहते हैं कि उनकी नजर से दुनिया देखी जाए.  व्यक्तिगत  निष्ठां यहाँ बहुत  प्रभावी थी जो हमें  कभी रास  नहीं आयी इसलिए  इस राह   पर कदम   बढ़ाया   ही नहीं| एक बात और थी कि कविता के नाम पर यहाँ ऐसी  कविता छापी  जाती थी जो लोगों के सर  से उतर  जाती है हम थे जन  कवि . हमारी कविता तुक  बंदी मानी  गयी . वो छापने  योग्य  ही नहीं थी ये अलग बात है कि  धरना  प्रदर्शन  हो तो हमें ही कविता पढ़ने को बुलाया  जाता  है. कोई नयी कविता का जनवादी कवि वहाँ कविता नहीं पढ़ता. एक ऐसी जन कविता जो जनता की समझ में ना आये हमारी समझ से बाहर थी .हमने वो पढी तो खूब लेकिन लिखने से परहेज ही किया.
        जय श्री राम का नारा लगाकर समाज में जो गोल बंदी की गयी उसके विरोध में हमने भी छुट पुट प्रयास किये. इस प्रयास के कारण हम भगवान राम के विरोधी के रूप में निन्दित और चिह्नित हो गए. खूब साहित्यिक मुठभेडे रहीं लेकिन हमें न झुकाना था न झुके. हाँ इस विव्वाद में हम ताझाम वाले मंचों से दूर होकर गोष्ठियों  में सिमट गए .तब हमने नुक्कड़ कविता का आन्दोलन चलाया. जगह  जगह मजमे बाजों की तरह मजमा लगाकर कविता के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुन्चायीए और आज भी हम यही ढंग अपनाते हैं .फिर मैंने  नेट पर यह सोचकर लिखना शुरू किया कि यहाँ अपनी बात कहने की स्वतंत्रता है यहाँ न सरकार रोकती है न कोई धर्म या पूंजी का मालिक और न ही  कोई बड़ा बुद्धिजीवी आलोचक /समालोचक. ये बात आज भी सही है लेकिन कुछ जिद्दी लोगों का यहाँ भी यही प्रयास है कि उनकी बात को सर झुका कर माना जाए . कोई बताये कि अगर समझोते ही करने होते तो नेट से बाहर की दुनिया क्या बुरी थी ? वहाँ तो मान सम्मान और धन सभी कुछ मिल सकता था. नेट पर लिखने से क्या मिलता है? सिर्फ ये मानसिक सुकून कि हम भी बेहतर  सोचते हैं हम भी बोलते हैं हम भी बोलेंगे और किसी के चुप करने से चुप न होंगें. बोलेंगें हर उस बात के खिलाफ जिसे हम गलत समझते हैं बोलेंगें हर उस बात के खिलाफ जिसके खिलाफ बोलने से लोग डरते हैं. इंसानियत की आवाजें. मजलूमियत की आवाजें बुलंद हों इसके लिए बोलना है बोलना है बोलना है .  

1984 میں جب کالج میں پڑھتا تھا ایک مقامی ہندی عمارت تنظیم کی اور سے منعقد شاعری مقابلے میں اپنے ایک دوست کے ساتھ کالج کی نمائندگی کرنے کا موقع ملا. شاعری کے مقابلے میں انعام تو نہ مجھے ملا نہ میرے دوست کو وہیں موجود ایک ویر رس کے راشٹري سطح کے شاعر نے جو دددا نام سے مشہور تھے ہم دونوں کو شہر کے ٹاؤن ہال میں کچھ دن بعد ہونے والے ایک قومی سطح کے شاعر سمملےن میں شاعری متن کی دعوت دے دیا. جن طالب علم شاعروں کو شاعری کے مقابلے میں ایوارڈ دیا گیا ان کا آج کہیں عطا پتہ نہیں ہے لیکن میرا دوست شاعری کے علاقے میں ایک خاص پہچان رکھتا ہے اور یہ کہنے کی ضرورت نہیں کہ میں نے بھی قلم اٹھا کر نہیں رکھی ہے.
         اس علاقے میں یہ محسوس ہوا کہ اب پلیٹ فارموں پر شاعری نہیں چٹكلے بازی ہوتی ہے اور پلیٹ فارم حاصل کرنے کے لئے چاپلوسي کرنا ہوتا ہے اور سپانسرز کی پسند ناپسند کا بھی خیال رکھنا ہوتا ہے. یہ نہیں ہو سکتا کہ آپ پوجيپتيو یا مذہب کے ٹھیکیداروں کے خلاف الكھ جگاو اور وہ تمہیں برداشت لوڈ، اتارنا. عوام بھلے ہی آپ کو پسند کرے لیکن اگر پھاينےسر کو پسند نہیں ہے تو آپ کسی بڑے فورم پر شاعری نہیں پڑھ سکتے. ایک اوج کے بڑے شاعر ہیں جو سارے ہندوستان میں اقتدار کو للكارنے کے لئے جانے جاتے ہیں ہم نے انہیں مثالی مانا لیکن جب قریب گئے تو ہم نے پایا کہ انہیں تو دھننا سیٹھ پیسے ہی اس بات کے دیتے ہیں کہ وہ بیچارے تھےليشاه جو حکومت کے خلاف اپنے من کی بھڑاس نہیں نکال پاتے اسے شاعر کے منہ سے سن کر اس بات کی تسلی کر لیں کہ کوئی تو ہے جو ان کی طرف سے حکومت کو کوس رہا ہے. اس بڑے شاعر کو سےٹھو ساهوكارو کے خلاف بولتے کبھی نہیں سنا. لیکن اس سے بھی زیادہ ان کا تیور کا كھوكھلاپن تب ظاہر ہوا جب مبینہ رام بھکتوں کی حکومت آئی. اب وہ حکومت کے خلاف نہیں بولتے تھے اب وہ امریکہ کے خلاف بولتے تھے وہ بھی بھارت کے ایٹم بم کی حمایت میں بولتے تھے امریکہ جو اپنا اقتصادی اور سیاسی ایجنڈے بھارت پر تھوپ رہا تھا اس کے خلاف نہیں بولتے تھے خیر وہ جیسے چاہیں سےکہنے لگے ہمیں کیا ؟ ہم نے ان کے تئیں اپنی عقیدت کو پہلے صلہ دیا تھا اور ہمیں یہ سمجھ میں آ گیا کہ شاعر کانفرنس کا پلیٹ فارم ہمارے لئے نہیں ہے.
      ہم دونوں شاعر دوست آج تک پر عزم ہیں اور شاعری کو مارکیٹ کی شرائط پر فروخت نہیں کرتے ہیں. میں شاعری کے علاوہ بھی کچھ لکھ لکھا لیتا ہوں. میں نے سوچا کہ خط میگزین کا جائزہ لینا چاہئے. لکھ رہیں ہیں تو چھپنا بھی چاہئے نہیں تو لکھنے کا اوچتي ہی کیا ہے؟ لیکن وہاں اور بھی برا حال تھا،. ہر اخبار ہر میگزین میں کچھ جمے جمايے لوگوں کے گروہ تھے جو اپنے لوگوں کو شائع ہوتے رہتے ہیں. ان کی شرائط پر چھپنا منظور ہو تو چھپ سکتے ہو نہیں تو نہیں. اب شائع ہونے کی اتنی بھی چاہ نہیں تھی کہ اس کے لئے اضافی کوشش کرتے. ایک بحران سب جگہ تھا کہ اظہار کی آزادی کا دم بھرتے تھے سب لیکن پیمانہ اپنا ہی رکھتے تھے. براهم تھے تو انہیں براهمو کے خلاف کچھ لکھنا پسند نہ تھا دلت تھے جو چاہتے تھے کہ بابا صاحب کہ جے بولی جائے اور براهمو سورو کو مزید سے مزید گريايا جائے. راجپوت تھے جو ستی کے رواج کے خلاف بولنے تک پر مار پیٹ کو تیار ہو گئے یادو تھے جو ملائم کے خلاف کچھ نہیں سننا چاہتے تھے. مختلف جماعتوں اور خیال دفعات میں نشٹھا رکھنے والے لوگ تھے جو چاہتے ہیں کہ ان کی نظر سے دنیا دیکھی جائے. ذاتی نشٹھا یہاں بہت مؤثر تھی جو ہمیں کبھی راس نہیں آئی اس لئے اس راہ پر قدم بڑھایا ہی نہیں | ایک بات اور تھی کہ شاعری کے نام پر یہاں ایسی شاعری شائع جاتی تھی جو لوگوں کے سر سے اتر جاتی ہے ہم تھے جن شاعر. ہماری شاعری تک قیدی مانی گئی. وہ قابل ہی نہیں تھی یہ الگ بات ہے کہ دھرنا کارکردگی ہو تو ہمیں ہی شاعری پڑھنے کو بلایا جاتا ہے. کوئی نئی شاعری کا جنوادي شاعر وہاں شاعری نہیں پڑھتا. ایک ایسی عوامی نظم جو عوام کی سمجھ میں نہ آئے ہماری سمجھ سے باہر تھی. ہم نے وہ پڑھی تو خوب لیکن لکھنے سے پرہیز ہی کیا.
        جے شری رام کا نعرہ لگا کر سماج میں جو گول قیدی کی گئی اس کے مخالفت میں ہم نے بھی چھٹ پٹ کوشش کی. اس کوشش کی وجہ سے ہم بھگوان رام کے مخالف کے طور پر نندت اور نشان ہو گئے. خوب ادبی مٹھبھےڈے رہیں لیکن ہمیں نہ جھکانا تھا نہ جھکے. ہاں اس ووواد میں ہم تاجھام والے پلیٹ فارموں سے دور ہو کر گوشٹھيو میں سمٹ گئے. تو ہم نے نككڑ شاعری کا احتجاج چلایا. جگہ جگہ مجمے باجوں کی طرح مجمع لگا کر شاعری کے ذریعے اپنی بات لوگوں تک پهنچاييے اور آج بھی ہم یہی طریقہ اپناتے ہیں. پھر میں نے نیٹ پر یہ سوچ کر لکھنا شروع کیا کہ یہاں اپنی بات کہنے کی آزادی ہے یہاں نہ حکومت روکتی ہے نہ کوئی مذہب یا سرمایہ کا مالک اور نہ ہی کوئی بڑا دانشور ناقدین / سمالوچك. یہ بات آج بھی صحیح ہے لیکن کچھ ضدی لوگوں کا یہاں بھی یہی کوشش ہے کہ ان کی بات کو سر جھکا کر تسلیم کیا جائے. کوئی بتائے کہ اگر سمجھوتے ہی کرنے ہوتے تو نیٹ سے باہر کی دنیا کیا بری تھی؟ وہاں تو مان عزت اور دولت سبھی کچھ مل سکتا تھا. نیٹ پر لکھنے سے کیا ملتا ہے؟ صرف یہ ذہنی سکون کہ ہم بھی بہتر سوچتے ہیں ہم بھی بولتے ہیں ہم بھی بولیں گے اور کسی کے خاموش کرنے سے چپ نہ ہوں گے. بولےگے ہر اس بات کے خلاف جسے ہم غلط سمجھتے ہیں بولےگے ہر اس بات کے خلاف جس کے خلاف بولنے سے لوگ ڈرتے ہیں. انسانیت کی آوازیں. مجلوميت کی آوازیں بلند ہوں اس کے لئے بولنا ہے بولنا ہے بولنا ہے.


2 टिप्‍पणियां:

  1. bahut sahi likha hai aapne aaj yahi sab ho raha hai kintu santosh is bat ka hai ki aap jaise log bhi hain jo hame rasatal me nahi jane denge.bahut sahi sthiti dikhai hai aapne.तिरंगा शान है अपनी ,फ़लक पर आज फहराए ,

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    1. Girijesh Tiwari ‎"लिखने से क्या मिलता है? सिर्फ ये मानसिक सुकून कि हम भी बेहतर सोचते हैं हम भी बोलते हैं हम भी बोलेंगे और किसी के चुप करने से चुप न होंगें. बोलेंगें हर उस बात के खिलाफ जिसे हम गलत समझते हैं बोलेंगें हर उस बात के खिलाफ जिसके खिलाफ बोलने से लोग डरते हैं. इंसानियत की आवाजें. मजलूमियत की आवाजें बुलंद हों इसके लिए बोलना है बोलना है बोलना है ." bilkul sahmat. ham apne hisse ka sach kahenge, chahe jo bhi keemat ada karnii pade.
      21 hours ago · Unlike · 2

      चंदन कुमार मिश्र धन्यवाद हमारी बात कहने के लिए। सुंदर।
      20 hours ago · Unlike · 2

      DrRakesh Srivastava एक बात और थी कि कविता के नाम पर यहाँ ऐसी कविता छापी जाती थी जो लोगों के सर से उतर जाती है..... हमारी कविता तुक बंदी मानी गयी . वो छापने योग्य ही नहीं थी ..... एक ऐसी जन कविता जो जनता की समझ में ना आये हमारी समझ से बाहर थी :-

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