बुधवार, 5 सितंबर 2012

'एक वेश्या का आखिरी ख़त'

 [मनास ग्रेवाल की कहानी 'एक वेश्या का आखिरी ख़त' जरूर पढो ये एक बेहतरीन कहानी है.]


     रविवार का दिन था और मर्द छुट्टी पर थे। और यही वह कारण था जो मुझे इस दिन शबो के कोठे पर खींच ले जाता था। उसी ने एक दिन कहा था- ‘तु रविवार को आया कर। भीड़ कम मिलेगी।’
मैंने पूछा- ‘भीड़ कम मिलेगी............?’
‘अबे, तेरी शादी नहीं हुई है ना अभी, जभी हो जाएगी, तभी तेरे खोपचे में मेरी बात बराबर घुसेगी।’ उसने पान थूकते हुए कहा- ‘शादी शुदा मर्द छुट्टी के दिन अपनी पत्नि को धोखा नहीं दे सकता ना, समझा कि नहीं।’
और मैंने हूं-हां करते हुए हामी भरी थी।
बुढ़ी वेश्या सी उस लुंज-पूंज कुर्सी को खींच कर बैठने की आवाज़ में, खिड़की से दिख रहे धारावी के उस सबसे बड़े घंटाघर की शाम के चार बजे की सूचना मानो कहीं दब कर रह गई।
- ‘आ गया लौंडा!’ आईने के सामने बाल संवार रही उस वेश्या से मेरी कभी नहीं बनी। वो बड़ी जाहिल, गँवार और मुँहफट सी थी। हालांकि वो सबसे ज्यादा ग्राहकों को आकर्षित करती थी। उसके नितम्ब और स्तन बाक़ी वेश्याओं की तरफ़ ग्राहकों का ध्यान जाने ही नहीं देते थे।
खैर मेरी कुर्सी के सामने अपने पलंग पर बैठी उस औरत का नाम कुछ भी रहा हो; इस बात से कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। वह बस एक वेश्या थी। सबसे अधेड़ और रौबदार। बाक़ी सभी से उसकी हिन्दी भी काफ़ी सुघड़ थी। वह हमेशा ही उस जाहिल से मेरा बचाव करते हुए कहा करती - ‘शोना, कुछ तो ख्याल कर। ये बेचारा कवि है।’
मैंने उन दोनों की अनदेखी सी करते हुए, चारों ओर नज़रें घुमाते हुए पूछा- ‘शबो कहाँ है? दिखाई नहीं दे रही।’
- ‘वो तो तीन दिन पहले ही मर गई। उसे एड्स था।’ पलंग पर बैठी उस अधेड़ वेश्या ने बिना किसी बनावट के सीधे-साधे सपाट स्वर में कहा।
मुझे कुछ देर तक जड़ सा रहने दिया गया और फिर उस अधेड़ वेश्या ने एक कागज मेरे सामने रखते हुए कहा- ‘ये वो तुम्हारे नाम छोड़ गई है।’
वो ख़त जैसा कुछ था। जिसमें बड़ी बेहूदी लिखावट के साथ मुश्किल से समझ में आ सकने वाले वाक्य थे। हालांकि मैं थोड़ी सी असुविधा के साथ उन्हें पढ़ सकता था।
‘पत्रकार जी!’ जैसे शब्दों से शुरूआत करते हुए उसने लिखा था- ‘आज या कल में मेरी मृत्यु हो जाएगी। मैं चाहती हूं कि मेरी मृत्यु के बाद आप कभी भी इस कोठे पर ना आएं। भले ही मेरे रहते हुए किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन दबी जुबान में सारी लड़कियाँ तुम्हारी कविताओं की आलोचना करती रहती हैं। उनका कहना है कि जब से आपने इस कोठे और हम वेश्याओं पर कविता लिखना शुरू किया है, लोगों में हम वेश्याओं के प्रति सहानुभूति और संवेदनाएं बढ़ गईं हैं। धंधे पर तो मार पड़ ही रही है, कुछ लड़कियाँ तो रात-रात भर पता नहीं कैसी-कैसी मोटी किताबें पढ़ती रहती हैं? और फिर दिन में अलसाई सी पड़ी रहती हैं, जिससे ग्राहकों को पूरा मज़ा भी नहीं मिल पाता है। कुछ तो श्रंगार के प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई हैं और एक दो ने तो रात को भागने और आत्महत्या की कोशिश भी की। खुद मैंने रात-रात भर जागकर ज्यादा ग्राहकों के बदले ज्यादा दलाली मिलने की परवाह न करते हुए, तुम्हारे प्रिय कवि कीट्स की रचनाएं पढ़ीं।’
मेरे लिए यह नई ख़बर थी कि शबो भी परिच्छेद बदलना जानती थी। हालांकि उसकी हिन्दी भी अच्छी-खासी थी, इस बात पर मैं अन्त में चौंकूगा।
- ‘आपने एक बार पूछा था कि हमारे कोठे में भगवान की मूर्तियों का मुँह छत की तरफ़ क्यों है? दर‍असल मेरे आने से पहले तक हमारे पलंग उनकी मूर्तियों के सामने ही हुआ करते थे। लेकिन एक रात जब एक मर्द स्खलित होने ही वाला था, ईश्वर की मूर्तियों को निहारती मेरी स्थिर और एकटक पुतलियों ने देखा कि भगवान ने अपनी आँखें झुका ली हैं। और तब से वो मूर्तियाँ छत को घूर रही हैं। मैं हर उस शख्स को ग्राहक समझती हूं जो इन कोठों पर आता है। भले ही वो हमारा ईश्वर ही क्यों ना हो। बस ईश्वर के साथ ये सहूलियत जुड़ी रहती है कि बाक़ी ग्राहकों की तरह उसे कोठों से निकलते वक़्त गर्दन झुकानी नहीं पड़ती। क्योंकि ईश्वर कभी लौटकर नहीं आते। जहाँ तक मैं जानती हूं, किसी भी ईश्वर की कोई लड़की नहीं थी। शायद इसीलिए वह ईश्वर था क्योंकि उसने अपनी विवशताओं को बहुत पहले ही पहचान लिया था।’
और फिर एक लंबी सांस और पृष्ठ पलटने की सी आवाज़।
- ‘तुम्हारी कविताएं मुझे पसंद आईं, क्योंकि तुमने मर्द और ईश्वर को उसकी औकात बताने की कोशिश की। और जिस दिन मैं तुम्हें ये बताने का साहस इकट्ठा कर रही थी कि मैं स्वार्थी हो गई हूं, ठीक उसी दिन मुझे बताया गया कि मुझे एड्स है। मैं एक गुनाह से बच गई और तुम एक अग्निपरीक्षा से। तुम्हारी कविताएं वेश्याओं की जिस मुक्ति की बात करती हैं, यह उसी के सन्दर्भ में होता। हालांकि मुझे विश्वास था कि तुम मेरी आस्था की लाज रख लेते, लेकिन मैं ज़ोखिमों के लिए भी तैयार थी। खैर जो भी हो, एक विश्वास लेकर मरना, एक अविश्वासी मौत से कहीं बेहतर है।’
और अन्त में परिच्छेद बदलते हुए उसने संक्षेप में लिखा।
- ‘मैं बड़ी उम्मीदों के साथ तुम्हें एक पता दे रही हूं। इस पते पर मेरी छोटी बहन रहती है, उम्मीद करती हूं कि उसे भी तुम्हारी कविताएं बहुत पसंद आएंगी। और न केवल पसंद आएंगी बल्कि इस समय उसे तुम्हारी कविताओं की सख्त ज़रूरत भी है।’ -तुम्हारी शबो।
बस इतना ही और जैसे यही अन्त था।
इतने बोझिल क़दमों से मैं पहले कभी इस कोठे की सीढ़ीयाँ नहीं उतरा था। ख़त के आख़िर में लिखे उसकी बहन के पते को मैं बार-बार दोहरा रहा था और मुझे लग रहा था कि जैसे वह पता मैं जानता हूं। शायद वह घाटकोपर के एक सबसे बदनाम चकले का पता था।
लेखक - मनास ग्रेवाल 

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